कुछ साल पहले सदीनामा प्रकाशन से एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी इसका नाम था “दिनकर और राष्ट्रीयता के नए आयाम ” जिसका संपादन किया था मैने और संयोजन किया था प्रोफेसर सत्या उपाध्याय ने। इसी तर्ज पर एक और पुस्तक विश्व पुस्तक मेले में देखने को मिली जिसके लेखक हैं,ईश्वरदास जोहर ह और पुस्तक का नाम है ” प्रेमचंद साहित्य राष्ट्रीयता बनाम सांप्रदायिकता. यह पुस्तक ठीक उल्टी पड़ताल करती है ।इस पुस्तक में लेखक ने यह बताने की कोशिश करते हैं कि प्रेमचंद के साहित्य में कहां कहां सांप्रदायिकता है और कहां कहा राष्ट्रीयता ।पुस्तके दूसरे पेज पर इसका एक और नाम है ” प्रेमचंद साहित्य : राष्ट्रीयता बनाम सांप्रदायिकता, अनकहे /संगोपित आयाम बिताया :वस्तुनिष्ठ शोध ,यह पुस्तक किताबवाले , प्रकाशन ने छापी है लेखक हैं डा.ईश्वर दास जौहर। प्रेमचंद ने नवाब राय से शुरू करके ,सोजे वतन ,कहानी संग्रह के प्रकाशन से हिंदी साहित्य मंच पर पदार्पण किया । इसके उपरांत उनकी लेखनी अनवरत चलती रही । अंतिम रचना ‘मंगलसूत्र ‘ उपन्यास को अधूरा छोड़ कर असमय काल कवलित हो गए। बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में प्रकाशित उनकी रचनाओं में प्राचीन हिंदू संस्कृति ,देशप्रेम , भारतीय शौर्य और बलिदान का गौरव गान किया गया है। हमीरपुर प्रवास का गहरा प्रभाव उनके मानस पटल पर पड़ा है। वे राजपूतों के बलिदान से अभिभूत हैं। रानी सारंधा जैसी कहानियां इसका प्रमाण हैं।उनके अवचेतन में मुसलमानों को प्रसन्न करने का प्रयास उनकी हिंदूवादी उदारवादी और सहअस्तित्व की भावना का परिचायक है । अतः उन्होंने ,”अकबर महान * ,सर सैय्यद अहमद और मौलाना अब्दुल हलीम *शरर आदि की जावनियां लिखीं।इन जीवनियों के दो आयाम हैं एक एक ओर विदेशी तुर्कों के आक्रमण का सामना करते मातृभूमि को स्वाधीन रखने वाले महाराणा प्रताप जैसे बलिदानी शूरवीर और दूसरी ओर मुसलमानों के तुष्टिकरण हेतु अकबर का गुणगान । प्रेमचंद दोहरा व्यक्तित्व जी रहे थे। देखा जाए तो यह लेखक की अपनी अवधारणा है, लेकिन प्रेमचंद के साहित्य को कुल मिलाकर देखा जाए तो उनके उनकी जीवनियां, नाटक ,कहानियां ,उपन्यास , लेख एवं संपादकीय हैं। अगर देखा जाए तो जीवनियां 1905 से 1911तक उर्दू पत्रिका जमाना के विभिन्न अंगों में छपीं । उनके नाटकों को देखे तो उनके नाटक कर्बला की भूमिका में वे लिखते हैं”कितने खेद और लज्जा की बात है कि कई शताब्दियों से मुसलमानों के साथ रहने पर भी हम लोग प्रायः उनके इतिहास से अनभिज्ञ हैं। हिंदू मुस्लिम वैमनस्य एक कारण यह भी है कि हम हिंदुओं को मुस्लिम महापुरुषों के सचरित्रों का ज्ञान नहीं। ” हिंदुओं के सिर ठीकरा फोड़ने का मुंशी का यह कथन ऐतिहासिक तथ्यों से विपरीत है ।
अगर उनकी कहानियों को देखें इनको दो हिस्सों में बांट सकते हैं । 1910 तक प्रकाशित कहानियां तथा सन 1920 के बाद प्रकाशित कहानियां ।सोजे वतन की भूमिका में प्रेमचंद लिखते हैं, “हमारे मुल्क में ऐसी किताबों की सख्त जरूरत है जो नई नस्ल के जिगर पर हुब्बे वतन ( देश प्रेम )की अजमत का नक्शा जमाए ।” इसमें 5 कहानियां हैं, दुनिया का सबसे अनमोल रतन, शेख मखमूर ,यही मेरा वतन है,शोक का पुरस्कार और पांचवा सांसारिक प्रेम और देशप्रेम । इन कहानियों से वे यह बताना चाहते हैं कि राष्ट्रप्रेम कितना जरूरी है। 19 20 के बाद की जो कहानियां है उसमें एक कहानी है बौड़म, दूसरी कहानी है मंदिर और मस्जिद ,तीसरी कहानी है मंत्र ।
उनके लिखे लेखों को देखें तो मई1923 में “मलकाना राजपूत मुसलमानों की शुद्धि” पर लिखा गया और दूसरा हिंदू मुस्लिम प्रश्न ,1924 में। 1930 में लिखे हंस के संपादकीय पर हम अपनी बात खत्म करेंगे,” हिंदू तो हमेशा यही रट लगाते चले आ रहे हैं ,लेकिन मुसलमान इस आवाज में शरीक न थे। ……. मुसलमान किसी प्रश्न पर राष्ट्र की आंखों से नहीं देखता ,वह उसे मुस्लिम आंखों से देखता है ” अली भाइयों ने फिर पहलू बदला और” पहले मुसलमान फिर कुछ और ” का नारा बुलंद किया ।मुंशी जी ने पहली बार मुसलमानों की धर्मांधता, सर्व इस्लामवादी विचारधारा और राष्ट्र विरोधी भावना का खुलकर विरोध किया सांप्रदायिक भावना की खुलकर निंदा की है।
मैं अपनी बात मिर्जापुर कॉन्फ्रेंस पर खत्म करना चाहूंगा , मुसलमान सदस्य युसूफ इमाम द्वारा सांप्रदायिकता विरोधी प्रस्ताव प्रस्तुत किया जाना ही इसे महत्वपूर्ण बना देता है। यही कांग्रेसजनों की हीन भावना है कि कागजों तक इस प्रस्ताव के सीमित रहने पर भी वैसे बड़ी उपलब्धि मानकर फूले नहीं समाते । जागरण में 1932 , 12 अक्टूबर को उन्होंने एक लेख लिखा, प्रेमचंद का यह अति भावपूर्ण लेख है, “विजय” को मां दुर्गा के समान शक्तिमती तथा जन-जन को उनकी संतान मानने की शुद्ध भारतीय दृष्टि है । उन्होंने प्रार्थना की है, “हमारी आर्योचित कर्तव्य भावना के भीतर अभिनव चेतना शक्ति का संचार कर दो मां!,” राम के पौराणिक प्रसंग,आर्यपुत्रों की विजय पताका, जननि के पूजा पुष्प बनने के प्राचीन भारतीयों प्रतीकों का लेखक के हिंदूपन को प्रकट कर्ता है
प्इसमें कोई दो राय नहीं कि वे हिंदू थे मुसलमान नहीं , लेकिन आज उनको इस तरीके से हिंदू बताने के प्रयास या इतिहास को नए तरीके से लिखने से विशुद्ध पाठक और उसकी सोच की प्रक्रिया में बाधा पहुंचती है ।पाठक की बात ही साहित्य के पाठक को उसके विचार से जोड़ती है आगे भी इस तरह की किताबें आती रहेगी, लोग पढ़ते रहेंगे। आमीन
जितेंद्र जीतांशु