अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर प्रस्तुत है एक स्वाभाविक सशक्त महिला की कहानी*

प्रत्यर्पण

दृष्य चस्पां होकर रह गया है।

वह यकायक घर से भाग खड़ा हुआ था। लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ। एक-दो बिजली के खंभे निकले और पीछे से दुधमुंहे बेटे की आवाज ने पीछा किया, “पापाऽ पापाऽ पापा…” उसके कदम और भी तेज हो गए। पर आवाज ने पीछा न छोड़ा तो धीमे पड़ गए। पलट कर सख्ती से बोला, पत्नी से जो बेटे को छाती पर धरे दोड़ी चली आ रही थी पीछे, “तुम लोग लौट जाओ, मैं लौटूंगा नहीं!”

नुक्कड़ पर एक रिक्शा उत्तर की ओर भागता दिखा। एक सवार था उसमें। उसने जोर की आवाज दी, “रिक्शाऽऽ” वह उसी में लद कर भाग जाना चाहता था जल्दी से… ताकि पत्नी पीछा न कर पाए! पर रिक्शा नहीं रुका। नुक्कड़ पर अब तक पत्नी भी आ चुकी थी। उसने सोच लिया, एक यात्री वाला रिक्शा ही पकड़ूंगा जिससे यह न चढ़ सके। …और वो रिक्शा भी आ गया। वह दक्षिण की ओर जाने वाला। वह लपक कर उस पर बैठ गया। चल पड़ा रिक्शा तो पत्नी पीछे दौड़ पड़ी। बेटा पापा-पापा की रट लगाए था। कुछ दूर चलकर रिक्शा चालक ठहर-सा गया। तो वे माँ-बेटा बिल्कुल करीब आ गए! वह जोर से बोला, “जाओऽ तुम लोग! लौट जाओ…”

      रिक्शा आगे बढ़ गया। पत्नी के आँसू नहीं देखे उसने मुँह फेर लिया। डर था, वह दूसरा रिक्शा पकड़ कर पीछा करने लगेगी। एक-दो खंभे निकल कर फिर पलट कर देखा उसने…अब वह ओझल हो गई थी।

      फिर हरेक मोड़ पर पीछे मुड़-मुड़ कर देखा, भीड़ में कोई अपना नहीं था। बेटे का स्वर अब सिर्फ अतीत था। पत्नी का चेहरा, जैसे- परछाईं। उसके दिल में शूल-सा उठने लगा।

      रिक्शा स्टैण्ड पर आकर रुक गया, “कहाँ जाओगे सा”ब!” वह चुपचाप उतर पड़ा। उसका हाथ पेंट की जेब में गया। फिर रिक्शा चालक की हथेली पर। और फिर वह मायूस-सा पीछे को हटकर खड़ा हो गया। आँखें उसी राह पर लगी थीं। …दूर-दूर तक अब कोई छाया न थी। न कोई पुकार।

      “ये तो होना ही था!” उसने खुद को दिलासा दिया। वह पिछले एक-डेढ़ साल से भागने-भागने को है! उसे एक अजीब-सी विरक्ति ने घेर लिया था। न अपने काम में मन लगता। न पत्नी में रुचि पड़ती। और न बच्चे के खेल सुहाते!

      वह शुरू से ही था भी काफी आत्म-केन्द्रित। उसके न दोस्त थे, न महफिलें! घर में भी माँ-बाप, भाई-बहनों से दिन-दिन भर नहीं बोलता। कोई दस बार बुलाता तो बड़ी मुश्किल में एक बार हाँ-हूँ करता। सब जानते थे कि उसके तईं तो बोल भी मोल बिका करता है। सबने उसे चलती-फिरती मूर्ति की तरह एडजस्ट कर लिया था। वे सब ऐसे सम्बंधी थे जिन पर उसकी चुप्पी का कोई खास असर नहीं पड़ना था…। धीरे-धीरे वह घातक प्रकृति उसकी आदत बन गई। ऐसी आदत कि जिसे अब कोई बदल नहीं सकता! …उसने फिर निगाह दौड़ाई-सड़क पर भीड़ थी और कोई नहीं था! उसने एक निश्वास छोड़ा। सोचा, “उसे पछतावा है!”

      है-तो…पर यहाँ से निकलते ही दूर हो जाएगा। जगह छूटते ही उसका मोह भी मिट जाता है! वह प्रकृतिस्थ हुआ। एक बस आकर रुकी, सब के साथ वह भी चढ़ लिया। एक सीट पर बैठकर गेट की ओर देखने लगा कि वे लोग आ तो नहीं रहे! बस चलदी। तो उसने फिर एक गहरा साँस लिया…अब छोर छूट गया। वह आँखें मूँदकर बैठ गया। सोचा नहीं था कहाँ जाना है। भागना है, बस भागना। रहना नहीं है।    रहना नहीं है, क्योंकि डिस्टर्ब नहीं होना है। अपनी एकाग्रता बड़ी प्रिय है उसे! उसके ख्यालों में खलल पड़ता है तो वह पगला जाता है। उसे जनम से ही लगता रहा है कि वह एक ऐसी पतंग है जो हवा के जोर से उड़ तो यहाँ रही है, पर इसकी डोर कहीं और जुड़ी है। वह किसी विप्लव का शिकार होकर अपने मन की डोर से नहीं टूटना चाहता। डोर, जो न जाने ब्रह्मांड के किस कोने से जुड़ी है…!

      बचपन में भी और फिर पढ़ाई के दिनों में भी उसकी एकाग्रता काबिले तारीफ रही। जो न खेल के प्रति थी न किताबों के प्रति, बल्कि ध्यान के प्रति थी। वह खेल शुरू करते ही न जाने कहाँ खो जाता। और किताब लेकर बैठते ही समाधिस्थ हो जाता। छत पर घंटों अकेले खड़ा रहता। पैरों में चींटियाँ भर उठतीं तो जागता। घरवाले उसके इलाज की सोचते। पर डॉक्टर्स और अंत में एक मनोचिकित्सक ने साफ-साफ समझा दिया कि उसका दिमाग एकदम दुरुस्त है। वह जीनियस है। …कभी कुछ कर गुजरेगा। उसमें जबरदस्त एकाग्रता है!

      तब से उसे उसके हाल पर छोड़ दिया गया।

      बस हवा से बातें कर रही थी। वह खिड़की की जानिब बैठा है। बाहर आसमान और धरती एक-दूसरे पर न्योछावर हो रहे हैं। यह करिश्मा वह बचपन से देखता आ रहा है। उसने किसी गीत में सुना था- स्त्री धरती है और पुरुष आसमान। आसमान झुकता जरूर दिखता है, उतरता-सा नजर आता है धरती पर! पर वो हकीकत नहीं है। आसमान धरती में बंधकर नहीं रह सकता। धरती पर उतर भी नहीं सकता। धरती तो खुद ही उसके महाशून्य में भटकती फिर रही है।

      उसे फिर पत्नी का चेहरा दिख गया। …बात क्या हुई जो वह इस तरह चला आया। उसे कोई कारण नहीं सूझ रहा। सारे घटना प्रसंग में उसे उसका कोई दोष नहीं मिल रहा। वह तो जब से मिली है, समर्पित है। चुपचाप सारे काम करती है, खामोश बैठी रहती है। बिल्कुल डिस्टर्ब नहीं करती। उसकी हरेक इच्छा भाँपकर पूरी करती रही है। …और तो भी लगा कि, दरअसल, उसका होना और उसके बाद बेटे का हो जाना…उसे एक जाल सा खिंचता लग रहा था अपने ऊपर। उसकी आत्मा बंधन में पड़ती जा रही थी। नौकरी के कारण भी वह बहुत बंधन महसूस करता था। पहले तो एक चेलेंज मानकर नौकरी के लिए बढ़ा था वह। लेकिन जब उपलब्ध हो गई तो गले में फाँसी-सी पड़ गई। उसे अपनी दिनचर्या बदलना पड़ी। फालतू में ही व्यस्त हो गया वह। अकारण! थोड़े-से धन की खातिर। धन जिससे कि जीवन चलता था। सुविधाएं मिलती थीं। समाज में एक साख बनती थी! और उसी की खातिर मनुष्य का सर्वश्रेश्ठ ईंट-पत्थर, लोहा-लंगड़-कबाड़ पर न्योछावर हो जाता। उसके सारे टेलेंट में यहाँ आकर जंग लग जाता।

      …और ऐसे ही दूसरा जाल भी खुद बुन लिया उसने! उसे लगा- सब की बीवियाँ होती हैं, कुछेक की प्रेमिकाएं भी। तो शौक-शौक में उसने एक कोशिश कर डाली। …वह उसके सहकर्मी की बहन थी। ताजा-ताजा बी.ए. हुई थी। सहकर्मी का सारा परिवार पहले से ही आकर्षित था उसके प्रति। लड़की भी थी, या नहीं! वह नहीं जानता, पर उसके साथ उसकी मुलाकातें बढ़ रही थीं। उम्र की ऐसी दहलीज पर थे वे दोनों जिसके उस पार मुक्ति और इस पार बंधन था। शनै: शनै: बंधन की ओर खिंच रहे थे। यह खिंचाव वे महसूस तो कर रहे थे पर इससे कतराने के बजाय दिन-प्रतिदिन इसी ओर आते जा रहे थे!

      वे छोटी-छोटी मुलाकातें- मंदिर की, रेस्तरां की, पार्कों की, पार्टियों की, उन्हें गहरे तक जोड़ती गई। उसे लगने लगा कि जो रंग बाहर बिखरे थे और उसे न जाने कब से खींच रहे थे, वे सब भीतर सिमट आए हैं! एक मीठी धुन जो अब तक कहीं दूर बजती रही थी अब उससे मिलन होने पर जलतरंग सी भीतर ही बज उठती है।

      …तो जो-जो बाहर था और जिसके ख्याल में खोया रहता था, वह करीब है और प्राप्य है और भीतर आता जा रहा है! वह खुद प्रयासरत् हो गया।

      अब अक्सर एकान्त में उसे लगता कि उसकी स्वच्छ हथेलियों में किसी कबूतर की तरह घोंसला बना ले और छुप जाए सदा-सर्वदा के लिए। या स्याह बालों में क्षितिज से लौटे थके-हारे पक्षी की तरह सो जाए गहरी नींद। यही है दूसरा छोर, जिसके लिए भटकता था! उसके पतंग की डोर इसी मासूम के हाथों में है। इसकी आँखों में वो सुरंग है जो इसके दिल तक उतर जाती है। …और दिल में वो खजाना है- जिसे पाना है उसे। वहाँ तृप्ति है। आनंद है। इस यात्रा का समापन बिंदु है। अंतिम सोपान।

      किसी को कोई एतराज न था। न इधर, न उधर। लड़का हेंडसम और स्मार्ट था- और नौकरपेशा। पान-सिगरेट तक से दूर। लड़की ब्यूटीफुल थी। पढ़ी-लिखी। सीधी-सादी। और किचेन में परफैक्ट! उसकी आँखों में कशिश थी और आवाज में मिठास। …सो उसने बड़ी सहजता से पा लिया उसे। बाकायदा विवाह संस्कार में बाँधकर धर्मपत्नी बना लिया। अब सम्पूर्णता उसकी मुट्ठी में आ गई थी। उसके भीतर का जलतरंग निर्बाध बज उठा था।

      “अपने उद्गार व्यक्त करो…” उसने हौले से कहा।

      लाज उसकी मुस्कराहट बनकर उभर आई। बड़ी मुश्किल से पलकें उठीं। फिर काँपती सी धीमी आवाज में एक द्विअर्थी गीत गाने लगी, “मैं तो कब से खड़ी इस पार कि अखियाँ थक गईं पंथ निहार…”

      उसे लगा, यही है वह पुकार जो अरसे से आ रही है उस पार से! उसके रोम खड़े हो गए। आगे की पंक्ति पर वह भाव-विह्वल होकर उसके आगोश में गिर पड़ा। जैसे आत्म-मिलन की चिर-प्रतीक्षित घड़ी आ खड़ी थी सन्निकट! और फिर अगले बंद पर तो उसका ध्यान ही नहीं गया। अब तो उसने तृषित चातक की तरह अपने ओठ खोल दिए थे।

      …उस रुपहली वर्षा में, प्राणों को वेधती साँसों की डोर में सराबोर वह बारिश की एक छोटी-सी बूंद बनकर जनम ले रहा था।

      दिन हवा होने लगे और रातें डूबने लगीं। जिंदगी एक बहती नदी बन गई जिसमें आसमान के दोंनो छोर उतर आए। अब न कोई भटकन थी, न उतावली, न अतृप्ति। अब वो बात-बात में डिस्टर्ब नहीं होता था। अब वो जियाद: एकान्त नहीं तलाशता था। अब सब कुछ सामान्य सा लगता था। …लेकिन भीतर ही भीतर कोई फोड़ा पक रहा था। एक अजीब-सा तनाव बना रहता। धुआँ, बारिश तो कभी अंधकार! रास्तों पर लोग परछाइयों से भागते दिखते।

      इस भेद को उसकी भार्या नहीं जानती थी। वह तो आम बीवियों की तरह उससे चीजों की, घूमने की और सोसाइटी मेंटेन करने की डिमाण्ड करती रहती। और उसे चिढ़ छूटती रहती पर भीतर ही भीतर घोंटता रहता।

      फिर एक दिन हुआ यह कि लता मंगेशकर को भारतरत्न का खिताब दे दिया गया। उस दिन टीवी पर अचानक उसने वही गीत फिर सुना-देखा…और धक् से रह गया। उसकी एक-एक पंक्ति उसके भीतर ऐसी उतरती चली गई, जिसने आज तक निकलने का नाम नहीं लिया। और उस एक पंक्ति ने तो उसके भीतर तूफान ही मचा दिया, “मैं नदिया, फिर भी में प्यासी!”

      जैसे, अपनी प्यास को और भीतर के तृप्ति-कुण्ड को खोज लिया था…और भारी हताश हुआ था कि वह कैसे दोहरे भ्रम का शिकार हो गया!

      एक पार्थिव शरीर दूसरे पार्थिव शरीर की तृप्ति का साधन कैसे हो सकता है…?

      इस पार्थिव शरीर की तृप्ति भला कैसे संभव है…??

      

      वह दोहरे भ्रम का शिकार हो गया, इस बात का उसे भारी डिप्रेशन था। अब उसका जी उचट गया था। वह बीमार-सा दिखने लगा। वह बीमार-सा रहने लगा। उसकी बीवी बहुत परेशान थी। उसे उस पर दया आती। उसे उसकी नासमझी पर दया आती। फिर धीरे-धीरे यह दया भी आनी बंद हो गई। क्योंकि वह फिर से आत्मलीन हो उठा था। इसी दौरान बेटा भी हो गया, पर उसकी रुचि नहीं जागी। बाहर से लगता कि सब कुछ ठीक है, पर भीतर ही भीतर बहुत कुछ खोखला हुआ जा रहा था।

      अब दिन काटने को दौड़ते थे और रातें मारने को। उसकी विरक्ति से पत्नी टेंशन में थी। आँखें डबडबाई रहतीं। और पत्नी के इस मनहूस चेहरे से उसे चिढ़ छूटती थी। उसे दफ्तर भी बुरा लगता और घरवार भी। एकान्त तलाशा करता। कभी नदी किनारे कभी पर्वत के पीछे।

      …बीवी अपाहिज-सी पीछा करती चली आती तो वह और भी टुन्न हो जाता। इतना असंपृक्त, इतना अजनबी कि उसकी रुलाई फूट पड़ती।

      

      बहुत दिनों तक कोई रास्ता नहीं सूझा तो एक दिन वह उसके बूढ़े पिता के घर चली गई और रोते-रोते सारा हाल कह सुनाया। वह बेटे की आदतों से परिचित था। फिर भी बहू की विपत्ति जानकर दुख में डूब गया।

      वह एक प्रस्ताव लेकर आई थी। उसने जोर देकर कहा, “बाबूजी आप चलिये!”

      पिता बोले,”बेटी, मैं अशक्त आदमी…अब उसे क्या राह पर लाऊँगा! वह तो शुरू से बर्बाद था। मैं तो उसका व्याह भी न करता। जानता था, किसी मासूम की हाय मुझी पर पड़ेगी। लेकिन, होनी बड़ी प्रबल होती है। तुम लोगों ने खुद ही कदम बढ़ा कर मंशा प्रकट की तो हम लोगों ने भी सोचा कि अब वो बदल रहा है! उसकी भी दुनिया बस जाएगी… हर माँ-बाप यही चाहता है, लेकिन होनी!” पिता ने आँखें पोंछी।” उनका कंठ काँप रहा था।

      उसने फिर जोर दिया, “लेकिन आप चलिये…मैं अकेली कब तक…” वह रोने लगी।

      और फिर दो-एक दिन बाद बूढ़ा पिता अपना थोड़ा-सा सामान लेकर उसके घर अड्डा जमाने आ गया तो उसकी त्यौरी चढ़ गई। उसे बड़ा अनुख लगा। बेटे के होने को तो वह बर्दाश्त कर गया था, लेकिन पिता का जीवन में पुनरागमन उसे खल गया। उसे लगा जैसे अब तो घिर गया पूरी तरह! दो सीढ़ियों के बीच की सीढ़ी बन कर रह गया!

      पिता तमाम ऊँच-नीच, भला-बुरा, जिम्मेदारी-संसार वगैरह समझाते रहे। जबकि वह सब कुछ जानता था। पहले से ही जानता था।

      और उसे पता था कि जिसने ताजमहल बनवाया और जिसने लालकिला जीता और जिसने धर्मध्वजा फहरायी…वे सब भी भ्रमित थे। स्वप्न में कितना भी उद्योग करो सब व्यर्थ होता है। लेकिन वह अपने उद्गार कभी व्यक्त नहीं करता था। यह उसका व्यैक्तिक मामला था। यहाँ कोई साझेदारी या आदान-प्रदान नहीं चाहता था वह। वह तो खुद ही इस खोज में लगा रहता था कि यह करिश्मा आखिर है-क्या! उसे बड़ा आनंद मिलता कि जब वह ब्रह्माण्ड की सैर पर होता। कि जब ब्रह्माण्ड उसके भीतर उतरता रहता। …और कोई टच कर देता तो उसकी समाधि टूट जाती। उसका चित्त अशांत हो उठता।

      अब ऐसे में नौकरी और घरवार चलाना बड़ा असहज लग रहा था उसे! एक पहाड़-सा रखा था उसकी खोपड़ी पर। इसे उतार फेंकना चाहता था वह। पर दिन-ब-दिन और गहरी गुफा में धँसता जा रहा था। एक अँधेरा उतर रहा था भीतर तक, जिसके हाथ में कोई उजाला न था!

      पिता आ गए तो भी वह सुबह का गया शाम को लौटता। कभी-कभी शाम का गया सुबह तक। …वे लोग उसकी अनुपस्थिति को अपने ओरपास उग आए काँटों की तरह महसूस करते और बच्चे की फूल-सी किलकारी से आश्वस्त हो लेते।

      

      पिता बीमार और जर्जर थे। उनसे खुद का भी काम नहीं हो पाता। वह बच्चे को और पिता को संभालने में लगी रहती। उसका दिन उन्हीं दोनों के लिए उगता और रात उन्हीं के लिए बीत जाती। पिता की धुंधली आँखें अक्सर डबडबाई रहतीं, पर वह अभ्यस्त हो गई थी। उसने इसी को अपना भाग्य मान लिया था। जैसे कि निभाने का दूसरा नाम औरत है, सो वह थी। और पक्की-पूरी थी। उसे इसी में सुख और संतोष मिलता। …अगर उसका आदमी बुरी सोहबत में फँसा होता या नशे में तो वह उसका पीछा भी करती और उन चीजों से बाहर निकाल लाती, चाहे जो कुर्बानी देनी पड़ती। पर वह तो आत्म-साधना में लीन था! वह मजबूर क्या करती। और जिंदगी भी उसने मनुष्य की पाई थी। किसी कीट-पतंग की पाई होती तो इस हाथ हुए, उस हाथ मर खप गए! पर मनुष्य तो पूरी उम्र जीता है। बड़ी मुश्किल से मरता है- सब सुख-दुख भोग कर। जब कुछ भी देखने को बाकी नहीं रह जाता उसके हिस्से का, तब मर पाता है।

      पिता अब मर रहे थे।

      वह सोचता कि पिता ने अपनी वेशकीमती जिंदगी मेहनत-मेहनत में निकाल दी। हिंदी भाषी होते हुए बचपन से ही कड़े अभ्यास के साथ अंग्रेजी सीखी। एक योग्यता हासिल कर कठोर परिश्रम से धन कमाया। और फिर शेष बची चौथाई जिंदगी तो अधिकांश मकान बनाने में गुजार दी। क्या वे सदा उसमें रह सकेंगे! उसके जहन में वे ही साँप-सी सरसराती रेखाएं उभरतीं जो न डँसती हैं, न छोड़ती हैं- कुण्डली मारकर बैठ जाती हैं।

      

      पिता एक दिन सचमुच मर गए। वह घर पर नहीं था। जब तक लौटा, उनकी राख ठंडी हो चुकी थी। कुटम्बियों और रिश्तेदारों के सम्मुख बड़ी शर्मिन्दगी उठानी पड़ी उसे। फिर वह और भी अबोला हो गया। और पिता के मर जाने से उसे झटका भी लगा कि अब तक तो वह सुनता ही आया था कि मनुष्य मरता है…हर कोई एक न एक दिन मर जाता है। पर अब तो यह मरना उसने जान भी लिया था! अब उसे यकीन हो गया कि वह भी बचेगा नहीं, एक दिन जरूर मर जाएगा। और यह उसका फूल-सा बेटा भी किसी दिन मर जाएगा। पत्नी भी, जो अभी इतनी जवान और सुंदर दिखती है, धीरे-धीरे सूखकर काँटा हो जाएगी, जैसे पिता हो गए…और एक दिन मर जाएगी…।

      मरने का एक जबरदस्त अहसास घर कर गया उसके भीतर। उसे सारा संघर्ष फिजूल और बेमानी लग उठा। अब मृत्यु उसके अनुभव में उतर आई थी। वह सुनिश्चित है और जीवन अनिश्चित! …सो वह छटपटा उठा था भाग निकलने के लिए।

      अचानक बस रुक गई तो भीतर गरमी लगने लगी। उसकी आँख खुल गई। बस खाली थी, कुछेक औरतें बैठी रह गई थीं। वजह जानने के लिए वह नीचे उतर आया। उसकी बस जाम में फँसी थी। पीछे भी कई वाहन आकर लग गए थे और आगे तो न जाने कब से लगे ही थे! माजरा क्या है, जानने की उसे कोई जल्दी नहीं। सड़क पर वाहनों और मनुष्यों की गहमा-गहमी थी। वह वापस बस में आ बैठा।

      …खेतों में फसलें खड़ीं थीं। सामने सूरज डूब रहा था। उसने निराशा से सोचा, कि फसलें उगती हैं, न उगता है सूरज मेरे कहे! ज्यादा से ज्यादा बंद गलियारों में ले जाता हूँ खुद को…और बाँचता हूँ अपना दुर्भाग्य!

      और ख्याल से ज्योंही बाहर आया तो हठात् चौंक पड़ा। नीचे पत्नी चली आ रही थी! अस्त-व्यस्त घरेलू सलवार सूट में…सीने से बेटे को चिपकाए! सूनी आँखें और बिखरे बाल! वह धक् से रह गया।

      वह बेहाल होकर पीछा कर रही है… वर्ष परछाइयों की तरह लौट आए उसके जहन में! वे शुरूआती दिन एकबारगी आँखों के भीतर ठहर कर रह गए। अंग-अंग शिथिल पड़ गया तो पलकों के नीचे महसूस किया उसे उसने एक पवित्र प्रार्थना की तरह।

      

      अगले क्षण वह बस के भीतर थी। और उसी की तरफ बढ़ रही थी…फिर नजदीक आकर आहिस्ता से बेटे को सीने से हटाकर उसकी ओर बढ़ा दिया तो वह इन्कार नहीं कर सका। उसे लगा, यह भी यहीं बैठ रही है। भीतर कुछ बजने लगा। लेकिन यह पहली बार हुआ कि उसका अंदाजा सही नहीं निकला। वह पलट कर जाती हुई बोली, “अपनी अमानत संभालना…”

      वह भौंचक्का रह गया।

      …फिर जब वह खिड़की के नीचे से गुजरी तो उसके चेहरे की सख्ती देख कर तो वह और भी भौंचक्का रह गया।

      

      जाम खुल जाने से सड़क पर भगदड़-सी मच गई थी। यात्री अपने वाहनों की ओर भाग रहे थे और वाहन मंजिल की ओर। बेटा उसकी गोद में रह गया था, पत्नी अदृष्य हो गई थी…। यह तो उसने सोचा भी नहीं था कि स्त्री भी एक स्वतंत्र व्यक्ति है… और वह भी कभी कोई निर्णय ले सकती है…।

      …अब उसे बस के इंजन की तरह अपने भीतर भी बड़े जोर की धड़धड़ाहट होती महसूस हो रही थी।

00-ए. असफल