(जिन मित्रों ने मंडी हाउस , श्रीराम सेंटर के गेट  के पास  संजना तिवारी  को  पुस्तक विक्रय करते देखा वे इस संघर्ष को  समझ सकते हैं। ऐसा ही एक नाम है  मिनाक्षी  सांगानेरिया : सह सम्पादक )  मेले मे कदर छाया इस कदर और साहित्य सृजन को भी अपनाया । बंगाल के गांवों में जाकर  साहित्य के साथ भाषा और प्रादेशिक भाषा  की जानकारी भी हासिल की। पुस्तक मेला जीवन की छांव है जो आपको बहुत कुछ दे जाती है । आप जब लघु पुस्तक मेले में जगह-जगह जाते हैं  तब  समझ पाते हैं कि  यह जिंदगी कितनी बीहड़ होती है । जो जाता है वहीं जानता है और साथ में संस्कृति, साहित्य को लेकर चलता है यह महसूस होता है ,साथ में आपको कई भाषा के लोग मिलते हैं ।आंचलिक भाषा भी आपको आनी चाहिए और आप आंचलिक भाषा को जितना अपने अंदर समेटते हो तो लघु पुस्तक मेला आपको उतना ही अच्छा लगने लगता है । साथ में लघु पुस्तक मेले में जो संस्कृत साहित्य या सामाजिक सरोकार, नाटक से संबंधित जितने भी कार्यक्रम होते हैं वह आपको और आपके चेतन मन को अंदर से  भिगो देते हैं । 

जब पहली बार कोलकाता के अकादमी आफ ईरान आर्ट्स  पास महिने के सेकंड सैटरडे को यानी शनिवार को हम दो से तीन घंटा का लघु पुस्तक मेला लगाते थे वहां मैं सिर्फ हिंदी की पत्रिका लेकर बैठती थी और मेला लगाने के बाद मेरी एक पत्रिका भी वहां से कोई नहीं लेता था ।तब मुझे वहां पर प्रेमांशु दा ने सुझाव दिया तुम बांग्ला पुस्तक भी लेकर बैठ सकती हो तब मैंने कहा हम बांग्ला पुस्तक नहीं छापते है तो उन्होंने मुझे सुझाव दिया  हम जो पुस्तक लेकर बैठे हैं उन्हें कुछ कम दाम में खरीद के और बेच सकती हो । इस प्रकार उसके बाद धीरे-धीरे मैंने लिटिल मैगजीन मेले में ही जो लोग पुस्तक रखते थे उनसे ही  बांग्ला पत्रिका और पुस्तक खरीद कर अपने स्टॉल पर रखना आरंभ किया और हिंदी की अपनी पत्रिका भी रखीं ।पहले इतने लिटिल मैगजीन यानी लघु पुस्तक मेले नहीं लगते थे अब तो आपको 6 महीने में हर सप्ताह गांव-गांव में लघु पुस्तक मेला लगा हुआ दिखेगा ,साथ में जितने पुस्तक मेंले लगते हैं ,उनमें भी एक छोटा सा लिटिल मैगजीन मेला ग्राउंड रहता है जिसमें वे स्टॉल लगाने वाले से स्टॉल भाड़ा  100 या ₹200   लेते हैं। फिर मैं गांव – गांव, शहर – शहर कभी दुर्गापुर, जलपाईगुड़ी, सिलीगुड़ी ,आसनसोल, बर्दवान, बांकुडा , चुचुड़ा ,चंदननगर पाणिहाटी, गोबरडांगा, बनगांव, बसीरहाट, पुरुलिया , कुचबिहार और भी ना जाने कितने गावों से गुजरती रहती हूं और यह  साहित्यिक  मेले बड़े अच्छे और सांत्वना देते हैं। पूरूर्लिया का मेला में 3 साल बाद 3 साल गई उसके बाद उन्होंने बुलाना बंद कर दिया ,कारण क्या है ?यह तो वही जाने लेकिन नहीं बुलाते हैं या तो वहां पर मार्क्सवाद का जोर है इस बोलकर हमें नहीं बुलाते हैं पर उससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि मुझे साहित्य चाहिए तो साहित्य का अगर अनुराग धीरे-धीरे लोगों में बढ़ रहा है तो अच्छी बात है लोगों के मन में आता है . एक हिंदी भाषी होकर और एक मारवाड़ी घर से होकर भी साहित्य में इतनी रुचि और साथ में गांव-गांव में लेकर घूमना हैं तो यह हमारे लिए खुश होने की बात है।दुर्गापुर में गए वहां हिंदी भाषा होने की वजह से हमें कई मुसीबत का सामना करना पड़ा जबकि पहले से बात करके आए थे कि रहने का स्थान मिलेगा ,भोजन का नहीं होगा फिर स्वरचित कविता पाठ के लिए भी हमें हिंदी भाषा होने का खामियाजा भुगतना  पड़ा और वे बोले मंच पर हिंदी भाषी को हम नहीं बुला सकते हैं। हिंदी पत्रिका की वजह से बंगाल बहुत सम्मान मिला तो कई जगह अपमान भी झेला इसके लिए । जबकि बांग्ला एकेडमी हमें जैसी सूचना होती है वैसे ही देती है । जिनके पास हमारे नंबर है अभी हमें बुलाते हैं ,जाना भी हमें सब जगह जा भी नहीं पाते हैं क्योंकि हर हफ्ता हर तीन दिन पर बहुत सारे लघु पुस्तक मेले लग रहे हैं । साहित्य सृजन बंगाल में ज्यादा हो रहा है लेकिन साहित्य में क्या पढ़ाया जा रहा है इसका  कोई ओर छोर नहीं समझ में आ रहा। जबकि  पुरुलिया का लघु पुस्तक मेला बड़ा ही सुंदर तरीके से संपन्न किया जाता है । वहां पर साहित्य का प्रचार प्रसार बहुत अच्छा है वहां बंगाली ,हिंदी , इंग्लिश का हर तरह के साहित्य का बहुत सुंदर तरीके से प्रचार प्रसार है जबकि हिंदी वाले लोगों को मालूम नहीं रहता की हिंदी की स्टाल है क्योंकि लघु पुस्तक मेला बांग्ला के लिए ही प्रसिद्ध है फिर भी हिंदी भाषी इक्के – दुक्के  हिंदी पुस्तक खरीद ही लेते हैं और साथ में बंगाली जनमानस प्रेमचंद की पुस्तक बहुत पसंद करता है,  खरीदता भी है। बाहर बाहर के जितने भी लघु पुस्तक मिले हैं वहां खाने पीने की व्यवस्था रहने की व्यवस्था भी लघु पुस्तक मेले वाले ही करते हैं और उनके अपनी व्यवस्था जितना उनके आर्थिक श्रम उनसे होता है। उस हिसाब से करते  है यह मेला करने में बहुत खर्च हैं पंडाल बनाने के भी  बड़े खर्चे हैं जिनको भी वह खुद ही वहन करते हैं यहां तक  कि हर कवि को प्रशस्ति पत्र या मोमेंटो देखकर वह उन्हें सम्मानित करते हैं ।

 लघु पुस्तक मेला आपको साहित्य में समृद्ध भी करता है आपको जीवन के पहलुओं के बारे में भी सिखाता है। बाली के श्रमजीवी हॉस्पिटल में हम लोगों ने लघु पुस्तक मेला लगाया में स्टॉल लगाया। वहां पर पूरा वातावरण साहित्यिक एवं सामाजिक था । वह एक नर्सिंग कॉलेज है जहां पर नर्सिंग सीखने आए हुए लड़के लड़कियां रहती भी है और उसी स्थान पर यह पुस्तक मेला लगा  इस पुस्तक मेला में करीब 30 लोगों ने भाग लिया। इस समय बेहाला और चूचड़ा में पुस्तक मेला था जिसमें मैं नहीं जा सकी इसका अफसोस भी है मुझे लेकिन एक साथ तीन मेले होने से आप सारे मेले में आपका जाना बहुत मुश्किल हो जाता है,लेकिन  लिटिल मैगजीन मेला जब लगता है तो मुझे लगता है जो मेला लगता है उसको आपस में बात कर लेनी चाहिए और उसके बाद ही लगाना चाहिए। जिससे एक साथ तीन मेला होने से बड़ी परेशानी होती है की किस में जाए और किस में नहीं जाए। यह  वाक्या कई बार होता है । श्रमजीवी वालों ने बहुत सुंदर प्रबंध कर रखा था रहने की व्यवस्था खाने-पीने की व्यवस्था शाम को नाश्ते की व्यवस्था चाय की व्यवस्था और साथ में किताब अगर नहीं बिक्री हो रही है तो उसे पर भी ध्यान देना इन सारी व्यवस्थाओं के बीच बहुत ही सुंदर तरीके से वह अपने कार्य को कर रहे थे । इसके लिए उन्हें धन्यवाद । उसके बाद का मेला मैंने  जलपाईगुड़ी जहां खाने पीने की नहाने की सारी व्यवस्था थी साथ में 70 स्टॉल लगे थे । मेला 2 से 8 बजे तक का रहता था । यहां साहित्यिक कार्यक्रम के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित होते रहे । सभी ने इन कार्यक्रमों का आनंद लिया और सहभागी बने उत्तरबंगा लिटिल मैगजीन मेला का एक नियम है कि वहां केवल जो उत्तरबंगीय  लघु पुस्तिका के लोग हैं वह बस उन्हीं को मंच पर कार्यक्रम करने की अनुमति देता है लेकिन अंतिम दिन कार्यक्रम के उन्होंने सभी स्टालों को फोटो खिंचवाने की अनुमति जरूरी दी। जलपाईगुड़ी का मेला मेरे लिए स्मरणीय रहा दीपा शाह  दी और उनके परिवार के साथ मेरा भोजन का आमंत्रण और उनके परिवार के साथ मेरी आत्मीयता हुई। इस प्रकार यह लघु पुस्तक मेला मुझे कोलकाता ले आया। अंबिका कलना कहां से लघु पुस्तक मेला है उसमें अभिजीत दास चंदन दास की जो भूमिका है बड़ी अच्छी है वहां जाकर बहुत मन में यह लगता है कि हम अपने ही लोगों के पास बैठे हैं और अभिजीत भाई तो इतना सम्मान करते हैं जिसका मेरे पास कोई कोई शब्द नहीं है और चंदन भाई भी बहुत सम्मान देते हैं और हर सांस्कृतिक अनुष्ठान बहुत अच्छे होते हैं साथ में कवि सम्मेलन नाटक उनके अलग ही आनंद है यहां पर हिंदी कविता को भी सुनने को सब तत्पर रहते हैं ।एक बात मैंने लघु पुस्तक मेले में देखी की लघु पुस्तक मेले में पुस्तक किस तरह की बिकती है । जब देखा कि लघु पुस्तक मेले में पुस्तक जो बिकती है वह हमारी जो धरोहर है हम किस एरिया में रह रहे हैं या  हमारी जो संस्कृति है जैसे सुंदरबन के ऊपर एक पुस्तक थी मैंने देखा जहां भी गई लोगों ने वह पुस्तक खरीदी वैसे ही अंबिका कलना पर मैं पुस्तक लेकर आई उसको  भी लोगों ने  खरीदा लालन फकीर, रवींद्रनाथ सिलाईदह, नाटक की पुस्तक साथ में कविता की पुस्तक जो कवि को जानते है तभी बिकती है  और सदीनामा की भरतहरि  संसारअरण्य यह बहुत बिकती है साथ में उपन्यास, ड्राइंग, अनुगल्प की पुस्तक और आज के समय  इंग्लिश पुस्तकें ज्यादा बिकती है बच्चों की बांग्ला से ज्यादा इंग्लिश बिकती है इसलिए पुस्तकों की चयन में भी बड़ी दिक्कत होती है कौन सी लेकर जाए कौन सी नहीं लेकर जाए लेकिन फिर भी बंगाल में आज भी बंगाली संस्कृति ,बंगाली साहित्य और बंगाली भाषा तीनों चीज बची हुई है लोग अपने साहित्य ,संस्कृति, नृत्य, गीत सब में पारंगत है और इसको लेकर वे अपने परिवार में अपने बच्चों को सिखाने में सदैव तत्पर रह रहे हैं । एक बार जितेंद्र सर ने जब शुरू शुरू में मुझे लालन के  कार्यक्रम के लिए भेजा था दो से ढाई घंटा मुझे पहुंचने में लगा था और तब मैं इन रास्तों को जानती भी नहीं थी लेकिन मैं पहुंची वहां पर मैंने देखा लालन फकीर के  इतने सुंदर तरीके से गीत गए जा रहे हैं जैसे लग रहा है हम कबीर को  सुन रहे हैं तो इस तरह की जो चीज हैं ना यह लिटिल मैगजीन यानी लघु पुस्तक मेले में ही हमें देखने को मिलती है पहले बांग्ला एकेडमी सब तरह के कवियों को बुलाती थी यानी पंजाबी नेपाली बंगाली हिंदी जितने भी तरह के कवियों के होते थे उनको बुलाती थी लेकिन अब अब सिर्फ बंगाली कवियों को ही बुलाती है तो मैंने यह बात यहां के मिनिस्टर ब्रत्या बसु से कहीं तो उन्होंने कहा अब हिंदी अकादमी बन चुकी है आप कवियों को हिंदी अकादमी ही बुलाएगी कविता करने के लिए और हिंदी अकादमी में मैंने ऐसा कुछ भी नहीं देखा कि वहां कोई प्रोग्राम होता है या लघु पुस्तिका मेला लगता है या पुस्तक मेला लगता है या वह कविता पाठ के लिए लोगों को बुलाया जाता है। अंत में यही कहूंगी की मेरी जान है लघु पुस्तक मेला,मेरी आन है लघु पुस्तक मेला, मेरी शान है लघु पुस्तक मेला,मेरा जीवन है लघु पुस्तक मेला।

मीनाक्षी  सांगनेरिया

सह संपादक