मोहन जो दारो और हड़प्पा की खोज  के सौ साल हो गए ।  हम सबने स्कूलों में पढ़ा है कि राखालदास बनर्जी और दयाराम साहनी ने इन जगहों पर खोज करके एक नई सभ्यता का पता लगाया। जिसका नाम रख गया सिंधु नदी घाटी की सभ्यता। इस खोज को हुए 100 साल हो हो गए इस  सभ्यता  की कुछ  चीजों का हम आज तक पता नहीं लगा पाए हैं।  अपनी तमाम वैज्ञानिक उपलब्धियों के बावजूद  उस समय की लिपि को नहीं पढ़ पाए हैं । यह स्थान आज पाकिस्तान में है लेकिन इस सभ्यता के फैलाव के अवशेष , आज की तारीख में हिंदुस्तान के विभिन्न शहरों में हैं । जिनमें लोथल,  कालीबंगा , राखीगढ़ी प्रमुख हैं। सही तौर पर अभी भी खोज बाकी है। इस खोज के 100 साल होने को पड़ोसी देश पाकिस्तान ने बड़े पैमाने पर मनाया जिसकी  समाप्ति नवंबर 2022 में हुई ।पिछले छह महीने से भारत में कोई सुगबुगाहट नही।  इस सभ्यता की  खोज से पहले यह माना जाता था कि भारतीय सभ्यता ईसा  से सिर्फ कुछ हजार साल पहले की है ,लेकिन इस खोज के बाद यह साबित हो गया कि यह सभ्यता 3000 साल वर्ष पुरानी है ।आज के भारतवर्ष में जो कुछ दिख रहा है उसके बाद का ही है। हम  इस सभ्यता के प्राप्त अवशेषों की अपनी तरह से  व्याख्या  कर लेते हैं ।  कभी हमें वहां भोले बाबा , महादेव नजर आते हैं कभी कुछ और। लेकिन इस सभ्यता की खासियतों में एक  है कि इस सभ्यता के पास दो जानवर नहीं थे ,एक बिल्ली और दूसरा घोड़ा । प्राप्त शहर स्थापना से पता चलता है कि यह सभ्यता बेहद विकसित थी।  बड़े से बड़े शहर थे व्यवस्थित तरीके से बसे हुए । सामूहिक स्नानागार पक्की  ईटों के घर और  हर नागरिक के लिए व्यवस्था । अपने देश में इस सभ्यता की  खोज के सौ साल  होने को किसी भी स्तर पर नहीं मनाया जा रहा है । अभी तक किसी भी संग्रहालय ने अपनी कोई योजना घोषित नहीं की है।  बांग्ला पत्रिका  के संपादक जहीरुल हसन ने इस सभ्यता पर एक विशेष पुस्तिका प्रकाशित की है। इस पुस्तिका को पढ़कर हमें लगा कि हिंदी में भी सभ्यता के खोज को रेखांकित किया जाना चाहिए। इतिहास बेहद सबसे अधिक संवेदनशील है । आज  हम इसे लगातार बदलने की बात कर रहे  हैं । यह बदला भी जाना चाहिए लेकिन तथ्यों के आधार पर ।देश के इतिहास को हमें आम आदमी से जोड़ देना चाहिए। सोशल मीडिया में इतिहास की जो कक्षाएं लग रही हैं वे न सिर्फ भ्रामक हैं बल्कि एक पक्षीय भी हैं। हमें इससे बाहर आकर,  इतिहास के तथ्यों  को बदलना चाहिए । हम  इतिहास पर तो बात करते हैं लेकिन इतिहास को प्रमाणित करने वाले तथ्यों की वैज्ञानिकता से मुंह फेर लेते हैं। सिर्फ  भावनात्मकता के आधार  पर बात करते हैं। हमको गदर के  पेशवा याद आते हैं, अजीमुल्ला खान नहीं।  इतिहास के स्रोत  बहुत अधिक गौर की मांग करते हैं। जमीन से खोदकर निकाली हुई चीजें,  हथियार ,सिक्के दस्तावेज पत्थरों  पर लिखी हुई बातें आती हैं। समय-समय पर एक सभ्यता दूसरी सभ्यता को दबा देती है ,न  सिर्फ दबा देती है बल्कि कई बार तो ऐसा पाया जाता है कि सभ्यता को भौतिक तौर पर जमीन में गाड़ दिया जाता  है । पूरे  भारत में किसी भी स्थान की खोज की जाए तो जमीन से दो मीटर खोजने के बाद हर जगह पर इतिहास बदलने के तत्व मौजूद हैं। लेकिन वे  हमारे केंद्र में नहीं है हम अभी भी एक ऐसे देश के तौर पर जाने जाते हैं जिसकी समस्याएं, गरीबी बेरोजगारी तो है हीन  हमारे साहित्यकारों को भी निजी कविता और कहानियों से बाहर जाने की जरूरत महसूस नहीं हो पाती है । हमारे सबसे बेहतरीन दिमाग सिर्फ अपनी कविता और कहानी की सेवा में लगे हुए हैं , समाज इतिहास और राजनीति को दिशा देने की उनकी  अदम्य शक्ति को दरकिनार करते हुए। वे राष्ट्र को कोई योगदान नहीं कर  रहे हैं। जगह घेर के बैठे   हैं। देश को क्रांति की जरूरत है लेकिन वह क्रांति जिन क्षेत्रों में होनी है, उनमें खून खराबा नहीं हैं। इसमें एक क्षेत्र इतिहास भी है।  वह भी जब हम हाल के ही इतिहास को बदलने लग जाते हैं या उसको अलग तरह से नैरेटिव करने लगते हैं। इतनी  सारी चीजें हमारे आसपास हो रही हैं जिन पर हमारी नजर नहीं है ।  हम सरस्वती नदी की बात कम कर रहे हैं, देखने में तो यह आ रहा है कि सिंधु नदी की सभ्यता सिर्फ सिंधु नदी की सभ्यता नहीं है। यह सभ्यता सिंधु नदी की से निकली दूसरी नदियों की भी है इसमें एक नदी सरस्वती है जो अब सूख चुकी है  और इसके किनारे बसे हुए शहरों का क्या हश्र हुआ ?यह भी इतिहास की बात है और खोजे जाने की जरूरत है। हम उस समय में जी रहे हैं कि जब हम यह चाहते हैं कि हमारे इतिहास पर बात दूसरे देशों के लोग आकर करें । हम यह मानकर चल रहे हैं कि सिंधु नदी की सभ्यता अति विकसित रही होगी ,जो थी भी लेकिन इसका विस्तार कितना था। इसकी उपनदियों के किनारे शहर विकसित हुए। इस खोज की जरूरत है कि इसके अतिरिक्त सभ्यता के विकास अन्य कारण क्या थे । जो भी कारण रहे हों उन कारणों को खोजने के साथ ही साथ इस सभ्यता की बेहतरीन चीजों को विश्व के सामने लाना चाहिए ।कहने को तो इमरान ढेरी की खोज भी हुई है जो पख्तून् बलूचिस्तान क्षेत्र में है । हमें सभ्यता के विषय को वेदों से भी आगे ले जाकर जोड़ना पड़ेगा ताकि हम बता सकें कि हम पूरी  दुनियां की सभ्यताओं के सिरमौर हैं   हम यह सहज ही बता सकते हैं। इसमें पूरी संभावनाएं हैं .