हिंदी पाठकों के लिए विमल मित्र परिचित नाम है। हिंदी में बनी फिल्म ,साहब बीवी और गुलाम एक सफल फिल्म है। यह फिल्म गुरुदत्त की एक अच्छी फिल्म नाम से भी जानी जाती है । लंबे समय तक हिंदी पाठक इस बात को नहीं समझ पाए कि विमल मित्र हिंदी के लेखक हैं या बांग्ला भाषा के । इसका कारण भी यही रहा कि विमल मित्र को आम बंगाली साहित्यकारों ने गंभीर साहित्यकार नहीं माना। यह ठीक उसी तरह की बात हुई जैसे कि फिल्मी गानों को हम गंभीर साहित्य से देने के लिए तैयार नहीं है ,लेकिन विमल मित्र के साथ ऐसी बात नहीं। आज 18 मार्च को बिमल मित्र का जन्मदिन भी है ।इस जन्मदिन का कार्यक्रम भी उनके पैतृक आवास चेतला में होना है । इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि अब बांग्ला भाषा के साहित्यकार इस बात को मानने लगे हैं कि मित्र गंभीर लेखक थे । यह दीगर बात है कि विमल अपने समय के किसी भी ग्रुप में नहीं थे। भाषाई विविधता के हिसाब से देखें तो बांग्ला के सभी बड़े साहित्यकार अपने मूल लेखन के साथ-साथ यह कोशिश करते हैं कि वे अपने किसी बड़े आइकन के ऊपर लिखें। बच्चों के लिए लिखें ।सिर्फ एक दो उदाहरण काफी हैं। सुनील गंगोपाध्याय ने लालन फकीर की आत्मकथा लिखी है और देवेश राय ने जोगेंद्र नाथ मंडल की आत्मकथा बारेशलर जोगेनमंडल लिखी है ।
जिस मुद्दे पर हम आना चाहते हैं वह मुद्दा यह है कि ऐसी कौन सी खासियतें है जो आज बांग्ला के लेखक उनको गंभीर लेखक मानने के लिए तैयार हुए हैं ।
इसी साल एक बांग्ला पत्रिका आई है किताब का नाम है * बंगालीर बोई पोढ़ा * संपादक हैं जहीरुल हसन । जिसकी कवरस्टोरी है, विमल मित्र पर। एक बात गौर करने लायक है कि इस पत्रिका ने हिंदी लेखिका अलका सरावगी को भी केंद्रित किया किया है । इसी पत्रिका में विमल मित्र पर लिखते हुए बांग्ला लेखक सुनील दास लिखते हैं ,”तीन हिस्सा पढ़ना और एक हिस्सा लिखना, यह लेखक के जीवन के समय का अनुपात होना चाहिए , यह बात मुझसे विमल मित्र ने कई बार कही. इसे बोलने के साथ-साथ उन्होंने यह भी कहा ,यह अनुपात वे अपने जीवन में नहीं रख पाए। लिखने के दबाव में रात सारी रात लगातार लिखते रहा। इसलिए पढ़ नहीं पाया। मेरी एक आंख से देख नहीं पाता ,मैं जो कुछ भी लिखता पढ़ता हूं दूसरी आंख से। उनकी याददाश्त इतनी मजबूत थी कि रवीद्रनाथ की कहानियों को मौखिक सुना डालते थे । सुनील दास आगे लिखते हैं कि उनके कई उपन्यासों को पढ़ते समय आप समय के लोगों को समझ पाएंगे ।उनके एक उपन्यास ,इकाई दहाई सैकड़ा को ही लें, उपन्यास पढ़ते समय आप गिरीश घोष, डीएल खान , विलियम मिलर से शुरू करके वर्ड्सवर्थ ,बुद्ध , कबीर ,शंकराचार्य, चैतन्यदेव रामकृष्ण से लेकर हेगेल , मुसोलिनी से महात्मा गांधी ,रवींद्र नाथ ठाकुर तक पाएंगे ।
पुलितजार पुरस्कार प्राप्त श्रीमती मार्जोरी कीनन रैलिंग्स के उपन्यास * द यार्लिंग * का बांग्ला अनुवाद भी उन्होंने किया।
इसी पत्रिका में तपन बंदोपाध्याय ने उनके बारे में लिखा है, ” मैंने बचपन से उन्हें पढ़ा था और पढ़ते समय यह महसूस किया कि ऐतिहासिक उपन्यास बिना ऐतिहासिक घटनाओं को समझे सिर्फ कल्पनाशक्ति के आधार पर नहीं लिखे जा सकते तो ये जरूर मेहनत करते होंगे।*
विमल मित्र को दूसरी भाषाओं में भी उतना ही पढ़ा गया है जितना कि बंगला में । शरतचंद्र के बाद वह दूसरे लेखक हैं जिनको हिंदी में पाठक उसी तरह पढ़ते हैं जैसे बंगला में ।
हाल में ही मित्रा और घोष , बंगला प्रकाशक ने उनकी रचनावली प्रकाशित की है, 12 खंड है । इस संग्रह में 70 पेज का एक छोटा उपन्यास है जो सरसुतीया , मुरली और छेदीलाल की कहानी है।पूरी कहानी हमारे आसपास से गुजरती है ।
बिमल मित्र के पढ़ने की गति यह थी कि वह रोज नेशनल लाइब्रेरी पढ़ने जाते और ऐसा होना अपने आप में उन्हें विविधता के साथ जोड़ता है । विमल मित्र की जो बात मुझे अच्छी लगती है वह यह है कि उनके उपन्यासों के पात्र सारे देश भर के होते हैं ।घटनाएं सारे देश की होती हैं इसलिए हिंदीभाषी और दूसरे देश के पाठक उनसे अपने को सीधे जोड़ पाते हैं। यह बात उन्हें दूसरे लोगों से अलग करती है। लंबे समय तक ऐसा कहा जाता रहा कि वे बंगाल के जमींदारों के लेखक हैं। अब आकर बंगला के नए पुराने लोग इस बात को महसूस कर रहे हैं कि विमल मित्र के साथ ऐसी कोई बात नहीं है । अपनी बात हम बंगला लेखक जहीरुल हसन के इस वक्तव्य से करेंगे ” बांग्ला के लेखक अब इस बात को महसूस करते हैं कि विमल मित्र एक बड़े लेखक थे .उनमें बड़े लेखक के सारे गुण मौजूद थे .वे जमीदारों के लेखक नहीं थे ।बंगाल में जमीदारी अपने चरम पर थी और आज भी मानसिक जमीदारी से हम ऊपर नहीं जा पाए हैं। ”
हमें सभी भाषाओं के साहित्य को पढ़ना चाहिए और उन लोगों के बारे में बात करनी चाहिए जो देश को समझने में मदद करते हैं।
आमीन
जितेंद्र जीतांशु